Raga – Conserving  Musical Heritage of India

National Seminar organized by Department of Music, MJGGPGC, Indore
January 31st and 1st February 2014

Sub-themes

Raga – Musical Heritage of India: Intrinsic Concepts

Conservation: Role of Classical Compositions

Conservation: Role of Oral Tradition

Conservation: Role of Classical Vocal Styles

Conservation: Role of Classical Instrumental Styles

Conservation:  Role of Folk Compositions

Contribution: Of Classical Gharana-s

Contribution: Of Classical Poet-Composers

Contribution: Of Music Institutions

Contribution: Of Guru-Shishya teaching system

Contribution: Of Thumri Compositions

Contribution: Of Classical Dance Compositions

Contribution: Of Electronic Instruments

Solutions for Preservation: Education

Solutions for Preservation: Performance

Solutions for Preservation: Visibility

 

Raga – Musical Heritage of India: Intrinsic Concepts

Arati Rao. Bangalore

Role of Thāya in preservation of Rāga features - A study of a few examples from Thanjavur manuscripts.

Introduction
A Thāya is a non-lyrical composition comprising musical phrases pertaining to a Rāga woven together. Musicological references to Thāya have been made by Pārśvadēva (between 1165 – 1330 AD), Rāmāmātya (1550 AD), Venkatamakhin (1650 AD), Tulaja (1729-1735 AD) and Subbarāma Dīksitar (1904 AD).
Thāya-s are not in vogue in Karnātaka music today, though many of their notations have been well-preserved in manuscripts in the Thanjavur Maharaja Serfoji’s Saraswathi Mahal Library (TMSSML). The musical phrases in a Thāya were sung with musical notes sa, ri, ga etc. and sometimes with syllables such as nom-tam. Thāya-s have different sections such as Āyittam, Yetupu, Sthāyī which illustrate structured development of a Rāga.
This paper examines the role of the musical form Thāya in preservation of Rāga features as seen in some examples found in the Thanjavur manuscripts B11575 and B11577.
Methodology followed
I ] Four examples of Thāya-s are taken up from the manuscripts for this study.
II] The following points are examined:

III] The findings of the above examination are analyzed and presented.

Dr. Ragini Trivedi. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

Indian musical heritage Raga: Conceived for Self-preservation

Structure of Indian scale system is built and created on basis of consonances. These consonances are the intrinsic part of Indian music system. Indian musical notes have a different approach in terms of scale. In fact, they are not treated as ordinary notes. The scale in India is called Gram and its structure is more complex than anywhere in the world. In western system as they have two scales (Major Minor) in India we have 10 scales which are called Thata-s. Its Raga system also has 10 essentials which define the weigh measure of its note and builts the mode of the Raga. To define notes and its behavior pattern a comprehensive study of its structure has been established. In Raga system melodic affinity play a major role which are constituted mainly within the interval of 3/2 (Shadaj- Pancham Bhav) and 4/3 (Shadaj - Madhyam Bhav). Beside, intervals of Shadaj Gandhar and Shadaj Komal Gandhar too, form an essential part of our scale system. There is a simple theory about consonances that if sonant of Raga is in lower tetra (Poorvang) then consonant will be in upper tetra (Uttarang) or vice versa. So much so that in Hindustani classical music, upper tetra chord and lower tetra chord are identical. In other words equilibrium of both tetra is essential for the structure of the Raga. This paper will deal with the intrinsic system of consonances within the Raga in particular to exhibit how it preserves the character of Raga in general.
Keywords: Raga, Poorvang, Uttarang, Tetra, Consonances, Gram, Thata, Sonant, Scale system

Prof. Pankajmala Sharma. Department of Music, Panjab University, Chandigarh

मतंग मुनि द्वारा प्रत्तिपादित रागविधान की राग संरक्षण हेतु प्रासंगिकता

मतंग मुनि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ 'बृहददेशी के तृतीय अèयाय मे राग का उल्लेख एवं विशद वर्णन प्राप्त होता है। मतंग ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मार्ग संगीत का जो रूप है तथा पूर्व आचार्यों भरतादि के द्वारा उलिलखित किया गया है, उसका लक्ष्य एवं लक्षण युक्त वर्णन मैं करूंगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि राग से अभिप्राय गीति से है जो भरत के समय में जाति के नाम से तथा वैदिक युग में साम के नाम से प्रचलित थी। मतंग ने स्वर वर्ण युक्त रंजक èवनि को राग परिभाषित करते हुए उसके दो भेदों का सामान्य लक्षण तथा विशेष लक्षण युक्त -इस प्रकार वर्णन किया है। राग की व्युत्पत्ति जन्य व्याख्या में राग को रूढि़, योग तथा योगरूढि़ रूप में वर्णित किया है। रागों का वर्गीकरण करते हुए रागों का अधार गीति तदन्तर ग्राम तथा देशी रागों का स्वरूप एवं लक्षण वर्णित किया है। रागों के अèययन में अनेक विशेषताएं दृषिटगोचर होती है जैसे ग्रामगत, स्वरगत तथा रसगत विशेषता आदि। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु भी दृषिटगोचर होते हैं। प्रस्तुत पत्र में उन्हीें कतिपय बिन्दुओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है जोकि राग संरक्षण में आज अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकते हंै-ये बिन्दु निम्न हैं-
मतंग के रागों का व्यवहार।
मतंग द्वारा वर्णित रागों का सामाजिक पक्ष।
मतंग के राग विधान का परवर्ती संगीत आचार्याें पर प्रभाव।
मतंग के राग विधान की आधुनिक समय में राग संरक्षण हेतु प्रासंगिकता।
संकेत शब्द: मतंग, वाग्गेयकार, गुरू -शिष्य परंपरा, राग, वर्गीकरण, स्वरूप एवं लक्षण, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत, स्वरलिपि,

Gauri Khanna. Dayalbagh Educational Institute, Agra

भारतीय सांगीतिक विरासत ‘राग’ पर वैज्ञानिक अध्ययन : एक समीक्षात्मक विचार

राग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधारभूत स्तम्भ है जिस पर भारतीय संगीत गर्व से हिमालय की भाँति अपना परचम फैलाए हुए है। आज राग के संरक्षण हेतु प्रयास करना आवश्यक बन गया है, कारण शायद समय की परिवर्तनशीलता है।
राग-क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की सम्भावनाएँ व्याप्त हैं। क्योंकि राग केवल शब्द-स्वर-ताल-लय का ही मिश्रण नहीं, अपितु श्रुति-अनुभूति-अभिव्यक्ति-वैज्ञानिकता का भी सहभागी है। अत: राग को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझना, राग पर वैज्ञानिक शोध करना आवश्यक है। इस प्रकार के वैज्ञानिक अध्ययन निश्चित रूप से रागरूपी सम्पदा को संरक्षण प्रदान करने के लिए उपर्युक्त सिद्ध हुए हैं और आगे भी होंगे।
राग-सम्पदा को संरक्षण प्रदान करने हेतु विभिन्न प्रकार के शोध विशेषत: स्वरों पर किए जाने वाले वैज्ञानिक शोध को जानना, समझना उन्हें निरन्तर जारी रखना आवश्यक है क्योंकि स्वर राग का आधार पक्ष है और वैज्ञानिक शोध केवल स्वरों के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि इसके माध्यम से राग रूपी विशाल सम्पदा में निहित विभिन्न विशेषताओं व सम्भावनाओं से भी हमारा परिचय होता है। क्योंकि स्वर पर किसी भी प्रकार का विश्लेषण राग के स्वरूप चलन को जाने बिना सम्भव नहीं है। अत: राग के स्वरों पर वैज्ञानिक विश्लेषण राग रूपी सम्पदा के संरक्षण हेतु किस प्रकार उपयोगी है, इस तथ्य को शोध पत्र में प्रस्तुत किया जाएगा।
संकेत शब्द: परंपरा, राग, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत, तारता मापन, अन्तराल मापन

 

Conservation: Role of Classical Compositions

Dr. Suvarna Tavse. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

गत और बंदिश में संरक्षित राग-सम्पदा

बंदिशे संगीत जगत की अमूल्य निधी है, रागों के सतत मनन एवं चिन्तन से उपजी बंदिशे मानो संगीत का मूल्यवान खजाना है। इन्हीं बंदिशों के माध्मय से प्रचलित राग स्वरूप दर्शन होते है।
''बंदिश'' शबद का उच्चारण करते ही राग का सम्पूर्ण रूप अपने में समेटने वाली सर्वांग सुन्दर रचना बंदिश कहलाती है। यही बंदिशें वाध संगीत में विभिन्न प्रकार की गतें कहलाती है। ''बंदिश'' कितनी प्राचीन और परम्परागत है यह निशिचत रूप से नहीं कहा जा सकता है परन्तु इसका असितत्व किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है। परन्तु इन बंदिशों को सुरक्षित रखने का किसी प्रकार का विशेष उपाय नहीं था।
आधुनिक युग जब मुद्रण विधा का प्रारंभ हुआ और प्रचलन बढ़ा तभी लिखित रूप में सुरक्षित रखने की अधिक उत्तम व्यवस्था हो गर्इ।
बंदिशों के द्वारा राग का संरक्षण किस प्रकार संभव हो सकता है इस पर मैने वादक एवं गायक द्वारा मंच पर प्रस्तुत प्रत्यक्ष कार्यक्रम सुनने, देखने व स्वयं के अनुभव द्वारा इस शोध पत्र के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र है।
संकेत शब्द: बंदिश, गत, राग, तान, स्थार्इ, घराना।

Sarika V Shravane. Achalpur Camp.

''शास्‍त्रीय बन्दिशों का राग संरक्षण में योगदान''

हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत में राग संरक्षण हेतु पारम्‍पारिक बन्दिशो की महत्‍वूपर्ण भूमिका रही है | भारतीय रागदारी संगीत में रागों को निर्धारित नियमावली के अन्‍तर्गत गाया जाता है, जिनको राग के सर्वसाधारण नियम कहते है | तथा यह पारम्‍पारिक शास्‍त्रीय बन्दिशोंमें अत्‍यन्‍त सुव्‍यवस्थित एवं सुगठीत रुप में विद्यमान है | इन बन्दिशों के माध्‍यम से राग को सहजतापूर्वक पहचाना भी जा सकता है और राग विस्‍तार करने हेतु बन्दिश मार्गदर्शक का भी कार्य करती है | ए‍क-एक बन्दिश के अन्‍तर्गत राग का संपूर्ण शास्‍त्र समाहित है, जो गेय स्‍वरुप में जल्‍दही कंठस्‍थ हो जाता है | रागो के नियमों का निर्वाह इन बन्दिशों द्वारा किया जाता है | उन नियमों को बन्दिश द्वारा गेय रुप में निबद्ध करके रागों को कैसे सुराक्षित किया गया है | इनमें सदारंग-अदारंग इनकी कुछ पारम्‍पारिक बन्दिशों का उदाहरण स्‍वरुप कुछ विलंबित तथा मध्‍यलय के ख्‍याल बन्दिशपर विचार प्रस्‍तुत किये जायेंगे | 
संकेत शब्द: बन्दिश, हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत, राग संरक्षण, परंपरा।

Prof. Swapna Marathe. KRG College, Gwalior

पं. भातखंडे रचित शास्त्रीय बंदिशों का राग संरक्षण में योगदान

भारतीय शास्त्रीय संगीत मानव भावनाओं की अभिव्यंजना का सशक्त एवं सुंदरतम साधन है जो व्यकित विशेष के चेतन मन के मनोभावों को अभिव्यक्त करती है। जिसका भारतीय संगीत से अटूट संबंध है। राग भारतीय संगीत की अपूर्व विशेषता है। प्राचीन काल से ही राग विकास के आलाप और गीत ये दो मूलाधार माने जाते रहे हैं। शास्त्रीय संगीत में राग और ताल में बंधी पदरचना 'गीत' कहलाती है, जिसे आज हम 'बंदिश' की संज्ञा से भूमीहित करते हैं। राग में आये हुये स्वर व 'वर्ण' शब्दों का महत्व परंपरा से यही राग की व्याख्या चली आ रही है । इसमें 'ध्वनि' शब्द केवल एक ही आवाज का बोधक न होकर एक विशेष ध्वनि समूह का निर्देशक है।
संकेत शब्द: गुरू-शिष्य परंपरा, पं. भातखंडे, राग, स्वरूप एवं लक्षण, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत, स्वरलिपि
Dr. Meenal S. Thakre. Mahatma Jyotiba Phule Mahavidyalaya, Amrawati.

राग संरक्षण में शास्त्रीय बंदिशों का योगदान

बंदिश राग पर आधारित ऐसी कलाकृति है जो राग की समस्त विशेषताओं को अपने में समेट कर व्यक्त कर देती है। पारम्परिक राग लक्षणों से युक्त यह बंदिश केवल वादी-सँवादी, वर्ज्य-स्वर, न्यास स्वर इत्यादि राग-लक्षणों से परिपूर्ण रहते हुए, उसमें आविर्भाव तिरोभाव के माध्यम से सम्भावित राग-हानि से मुक्त रह, राग के आकृति-बंध की स्थापना कर, सौंदर्याविष्कार के उस चरम बिंदु को प्राप्त करती है जहाँ पहुँच वह बंदिश ही राग की पहचान का आधार बन जाती है। बंदिश वह सेतु है जिससे राग-प्रदर्शन में राग-सागर पार करना सरल हो जाता है। प्रस्तुत शोध-निबंध में कुछ शास्त्रीय बंदिशों का राग-प्रगटीकरण के माध्यम से विचार किया गया है।
संकेत शब्द: बन्दिश, हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत, राग संरक्षण, परंपरा ।

Conservation: Role of Oral Tradition

 

Durgesh Pande. Research Scholar, Bhopal

राग संरक्षण में मौखिक परम्परा की भूमिका

संगीत गुरुमुखी विद्या है,जिसे इसी प्रकार से प्राप्त करना सर्वोत्तम माना गाया है। ग्रन्थों में लिखित स्वरलिपि से राग को समझ पाना या उसे गाना-बजाना दुष्कर प्रतीत होता है। शायद इसी कारण से राग अपने मूल रूप से अलग होते चले गए। कालांतर से इन रागों में कुछ-कुछ बदलाव आते गये। आज इन रागों को अपने मूल रूप में पहचान पाना उतनाही कठिन है, जितना कि हवा को देख पाना। प्राचीन राग केवल किवदंतियों मे सुनने को मिलते है, जैसे राग दीपक । आज इस राग का स्वरूप क्या है और पहले यह कैसा था,कह पाना मुश्किल है। और तो और अब इनकी सही रूप में जानकारी मिलना भी असंभव है।
मध्य युग के कई आक्रमणों की वजह से कलाकार असुरक्षित हो गये थे। अतः अपनी रचनाओं को सुरक्षित रखने के लिए,कई ग्रन्थ तथा लिखित सामग्री छुपा दी गई। फलस्वरूप आज हम इस जानकारी से पुर्णतः वन्चित है।
घरानों के स्वार्थी स्वभाव ने भी रागों को गुप्त रखा, जिससे कई रागों के स्वरूप पीढी दर पीढी बदलते चले गए। लेखन कार्य का अभाव होने की वजह से अधिकतम रचनायें अलिखित रह गई, तथा मौखिक रूपसे सिखलाई गई विद्या रागों के स्वरों को तथा स्वरूप को शनैः-शनैः बदलती रही।
संकेत-शब्द: मौखिक, राग, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत

Conservation: Role of Classical Vocal Styles

Dr. Bageshri Joshi. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

राग-रंजक रंगाचार का व्यामोह

विश्व संगीत के पटल पर भारतीय संगीत अपनी राग व्यवस्था के कारण पहचाना जाता है। विश्व की किसी भी संगीत प्रणाली मे राग सदृश्य कोर्इ चीज उपस्थित नहीं है। इसीलिये भारतीय संगीत सभी से अलग है।
जाति गायन की समाप्ति के पश्चात जिस धुरी के इर्द-गिर्द भारतीय संगीत व्यावर्तन की क्रिया में उलझा रहा उसी का परिणाम रागतत्व के रुप में दिखार्इ दिया।
अक्षर-भाषा-व्याकरण शास्त्र के अनुसार राग अत्यंत छोटा शब्द है किन्तु संगीत के स्वरशास्त्र में उसकी व्यापित अति विशाल है। कभी लोकधुनों के रुप में रहा यह राग आज जिस मुकाम पर है, वह संगीत के सप्तस्वरों के व्यामिश्र, व्यामोह, व्यायत व्यावर्तन का ऐसा व्युतक्रम है जो रंग, रटन, व रंजन से आकार बनाता है तथा ठीक-ठीक समय पर स्वरों के आप्लावन से आलाप रुप में आविर्भाव करता है। यह आविर्भाव ही 'राग का अवतरण या प्राकट्य है। प्रवाही परंपरा का प्रतिनिधि होने से राग में परिवर्तन व प्रयोग हुए किन्तु वे सभी शास्त्र व शैलियों की मर्यादानुरुप हुए। राग की शुद्धता व भद्रता में उससे कोर्इ अंतर नहीं पड़ा, किन्तु आज स्थिति कुछ भिन्न है। प्रयोग व सौन्दर्य की लालसा में राग में होने वाला अनावश्यक हस्तक्षेप रागस्वरुप की मौलिकता व उसकी शैलीगत विशेषताओं को खण्डित कर रहा है -- भारतीय संगीत का रागतत्व इसकी अनुमति नही देता।
भारतीय संगीत में धीरे-धीरे यह भय व्याहत होने लगा है कि यदि राग से भद्र स्वराविष्कार का अनुशासन समाप्त होने लगा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें राग की शुद्धता को भी आयात करना पड़े।
प्रस्तुत शोधपत्र में कुछ विशिष्ट् गान शैलियों व संगीत के शब्दार्थो की सहायता से राग के भद्र स्वराविष्कार के संरक्षण संबंधी चर्चा की गर्इ है।
गानशैली — फाग, फुलड़ोल, रसिया, होरी, बसंत, विष्णुपद
संकेत-शब्द: रंगाचार, राग, रागतत्व, प्रयोग, व्यावर्तन, सौन्दर्य, रंग, रटन , रंजन

Astha Tripathi. Ph.D. Scholar, MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

राग संरक्षण में ध्रुवपद गान शैली की भूमिका 

ध्रुपद गान शैली ने सम्पूर्ण भारतीय संगीत कला जगत को एक विशिष्ट सांगीतिक भाषा, सांगीतिक कल्पना, सांगीतिक सौंदर्य व आकर्षण में शताब्दियों तक बाँधे रखा। ध्रुपद के गायक कलावन्त कहे जाते हैं। ध्रुवपद रचियताओं में गीत के साहित्य व संगीत दोनों रचने की विशेष क्षमता होती हैं, इसलिए ये वाग्येकार कहलाते हैं। नायक गोपाल, नायक बक्शू, स्वामी हरिदास, हरिवल्लभ, चिंतामणि मिश्र जैसे अनेक नाम वाग्गेयकारों में देखने मिलते हैं। इन वाग्गेयकारों ने केवल ध्रुपद का साहित्य ही नहीं रचा, अपितु उन्हें विशिष्ट राग स्वरावली में निबद्ध भी किया। अनेक रागों में ध्रुपद की रचना मिलती हैं, जिनके नाम तक प्रचार मे नहीं रहे; जैसे- ककुभ, सरपरदा, झिलफ, जंगला, आरभी, बहादुरीतोड़ी, गांधारी, मालगुंजी, बिहागड़ा, शुद्धनट, नटकामोद आदि।
एक उदाहरण -
ताल धमार,राग - ककुभ, गायक - मोहम्मद अली खाँ
मनहरन चाल नन्द राय के .............. मारीफ्फुन्नगमात पुस्तक (भाग 2) से ।
एक अन्य देखें -
ताल चौताल राग - खम्बवती, गायक - पब्बन खाँ सहारनपुर
आदि मध्य अन्त ........................ मारीफ्फुन्नगमात पुस्तक (भाग 2) से।
संकेत शब्द: ध्रुपद गान शैली, परंपरा, वाग्गेयकार, राग, वर्गीकरण, स्वरूप एवं लक्षण, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत
Prof. Harshwardhan Thakur. MLB Girls College, Indore

राग संरक्षण में राजा मानसिंह तोमर का योगदान

राजा मानसिंह तोमर के शासन काल (1486-1516) के इतिहास को भारतीय शास्त्रीय संगीत के संरक्षण, परिवद्र्धन का उज्जवल इतिहास कहने में मुझे कोर्इ संकोच नहीं है। राजा मानसिंह की संगीत प्रियता, संगीत मर्मज्ञता और कला तथा कलावन्तों के सम्मानपूर्ण जीवनयापन की चिंता एवं उदारतापूर्वक प्रश्रय देने की मानसिकता ने ही शास्त्रीय संगीत के महान घराने ßग्वालियर घरानाÞ की सुदृढ़ आधारषिला रखी। धमार गायकी तथा धमार ताल का आविष्कार - राजा मानसिंह के दरबारी संगीतज्ञ नायक बैजू द्वारा इस नवीन विधा का आविष्कार किया गया था। राजा मानसिंह तोमर के दरबार में विभिन्न कलावतों द्वारा जिन रागों का गायन द्वारा निरंतर संरक्षण एवं प्रस्तुतीकरण किया जाता था, उनमें से कुछेक नाम निम्नानुसार से हैं - भैरव, बिहाग, परज, मल्हार, हिंडोल, अल्हैया बिलावल, आसावरी, तोड़ी, गुर्जरी, भीम पलासी, जयजयवंती, भैरवीं, बहादुरी तोड़ी, नायकी कान्हड़ा, रामकली, पूरिया, खट, गौड़ सारंग, मारवा, देसी, गुणकली, बिहागड़ा आदि सुपरिचित राग हैं।
संकेत-शब्द: शास्त्रीय राग संरक्षण, राजा मानसिंह तोमर, धमार
Dr. C . Banawat & Anjali Gilotra. Banasthali Vidyapeeth, Banasthali 

ख्याल गायन बंदिशें राग संरक्षक के रूप में: रागांग संदर्भित

राग, ख्याल गायन बंदिशें तथा रागांग ये तीनों ही उपमान परस्पर अभिन्न शास्त्रीय सांगीतिक अलंकार हैं। इन तीनों की ही पूर्णता परस्पर अंतर्वलय से ही सिद्ध हो पाती है। जहां एक ओर बंदिश राग के प्रस्तुतिकरण का माध्यम है वहीं दूसरी ओर रागांग राग को निजीत्व प्रदान कर उसे बंदिश में संरक्षण प्रदान करने में मददगार है। राग-विधान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार बंदिश में रागांग द्वारा संरक्षित तथा दिग्दर्शित होता है। यह राग के सौंदर्य तथा निजीत्व को अपने में सुरक्षित रखती हैं, और यह अवाक सौंदर्य राग के रागांग में ही निहित होता है। क्रमिक पुस्तक मालिका (भाग-2) में पृ. - 172 पर वर्णित बंदिश 'धन धन मूरत कृष्ण मुरारी..... में 'धन धन शब्द पर 'ग म ध की संगति, 'मुरारी शब्द पर म रे की मींड पृ. 173 पर '' अब न जगावो प्यारे मैं ....... में 'अब न पर 'ग म ध' तथा 'प्यारे शब्द पर म रे की संगति तथा ऋषभ पर आन्दोलन है। इसी बंदिश की द्वितीय पंकित ' लाग ली अखि मोरि अबहुँ नेक पल में सा ध़ की संगति तथा ऋषभ का आन्दोलन है। इस प्रकार रागांग, राग और बंदिश के परस्पर संबंध की महत्वपूर्ण कड़ी है। बंदिश के द्वारा जहां राग का संरक्षण होता है वहीं उसके अंत:स्वरूप को एक सुनिशिचत रूप मिलता है। अत: ख्याल गायन बंदिशें रागांग के ज़रिये राग संरक्षण के रुप में संगीत का महत्वपूर्ण आयाम है।

Conservation: Role of Classical instrumental Styles

Dr. Sandhya Bajpai. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

भारतीय राग संगीत-घराने और तालवाधों का रस निष्पादन में योगदान।

कहा गया है- 'वंशों द्विविधा जन्मना विधचाच' अर्थात वंश या कुल दो प्रकार से चलते हैं- एक जन्म से और दूसरा विधा से। विशिष्ट गुरु-शिष्य परम्परा से विधा पाने वाले सभी शिष्यों का एक घराना होता है। घरानों के उदय से संगीत छोटे-छोटे दायरों में सीमित अवश्य हुआ है, किन्तु साथ ही साथ घरानों ने कला की रक्षा का उत्तरदायित्व भी निभाया है। घराने के उदभव ने भारतीय संगीत की परम्परागत विधा को सेहजने का कार्य बखूबी किया है। युग परिवर्तन के साथ घरानों की कटटरता कम होती जा रही है, परन्तु फिर भी इन घरानेदार कलाकारों ने ही हमारी संगीत की संस्कृति को सहेजा है।
परन्तु युग परिवर्तन के साथ आज संगीत का दायरा बहुत व्यापक हो चुका है। घरानों से निकलकर संगीत विधालयों, महाविधालयों तथा विविध संस्थाओं तक पहुंच चुका है। कर्इ संगीत पत्र पत्रिकाओं, पुस्तकों एवं शोधों ने घरानों की गुप्त विधाओं को आमजन तक पहुंचा दिया है। वर्तमान में घरानों की पृथक शैली को निभाना सहज नहीं है। प्रस्तुतीकरण की विधि अब संकुचित दायरों से निकलकर उदार दृषिटकोण अपना चुकी है। घरानों की विशिष्टता को बनाये रखने के लिए उनका संयोजन आज के युग की मांग रही है। संगीत के बढ़ते शौक एवं प्रस्तुतीकरण की आधुनिक तकनीकों के बीच घरानों को जोड़ना सुखद अनुभव है।
संकेत शब्द: गुरू-शिष्य परंपरा, घराना, राग, वर्गीकरण, स्वरूप एवं लक्षण, संरक्षण, स्वरलिपि
Ravi Sharma. Professor, Deptt. Of Music, M. D. University, Rohtak

Role of Sitar in popularizing Indian traditional musical compositions

There has been a long oral tradition of transferring music compositions from one generation to another in Indian music. The students in Guru Shishya-Parampara used to be trained by a learned Guru, keeping in view the capacities and weaknesses of each individual learner. Thus, musical compositions were kept alive through generations of the oral learning process. This tradition was applicable to vocal as well as instrumental music
Gradually, Guru Shishya tradition weakened on account of the collapse of Gharana tradition. In this situation, the problem of keeping musical compositions intact and teaching the correct and traditional (Gharanedar) composition arose. In instrumental music, Sitar played a vital role in promoting and popularizing traditional musical compositions.
It would not be incorrect to state that it were the sitar compositions which influenced other musical instruments. Instruments like Sarod, Santoor, Vichitra veena, Israj, Violin, slide Guitar(hawaiian), Jaltarang, Flute etc. can be cited as the examples whereas, these instruments followed the tantrakari tradition of Sitar, on account of its popularity. It is a fact that particular patterns of bol of Maseet Khani gat and Razakhani gat were tried and adapted for the aforesaid set of musical instruments. By this, many traditional compositions in the tradition of Gatkari could be saved from being lost as the Sitarists played and popularized them and kept them intact. Due to popularity of Sitar, other stringed and other musical instruments adapted the same compositions and popularized them further.
The paper would throw light upon how the traditional composition in sitar has popularized the composition still played by present artistes and popular because of their aesthetic cannons. To support my view I will present famous compositions played by great stalwarts.
Keywords: Sitar, Compositions, Gat, Maseet Khani, Razakhani
Prof. Vinita Verma. Govt. Girls P.G. College, Indore

गतकारी अंग और राग संरक्षण

प्रस्तुत शोध प्रबंध में यह विश्लेषित किया जाएगा कि गतकारी ने किस प्रकार रागों का सम्वर्द्धन किया। गायन में जहाँ गायक के पास श्वास-आधारित लम्बी अटूट सुर-ध्वनि का बल था, वहीं बारंबार प्रहार करने से टूटती ध्वनि को निखारने के लिए उसी प्रहार को नूतन क्षमता में परिवर्तित करने के लिए अनेक विद्वान संगीतज्ञों ने वादन में अपने अपने ढँग से नूतन प्रयोग किए। गतकारी की यह परम्परा कलाकारों ने घरानों में भी विकसित की।
संकेत-शब्द: राग, गतकारी, संरक्षण, वादन

Conservation:  Role of Folk Compositions

Dr. Rajendra Deshmukh. Amlokchand Mahavidyalaya, Yavatmal

लोकसंगीत परम्‍परा की राग संरक्षण में भूमिका'

मालवा लोकसंगीत परम्‍परा से राग निर्माण और संरक्षण हेतु भारतीय संगीत की एक नई प्रवृत्‍ती और प्रक्रिया के पहले कलासाधक पं. कुमार गन्‍धर्वजी इनके उदाहरणस्‍वरुप लोक धुनों से राग निर्मिती की स्‍वररचना दी जायेगी। कुमारजी केवल गायक ही नही अपितु एक प्रखर कल्‍पनाशील कलाकार थ। लोकधुनों के नोटेशन बनाकर उनका गहन अध्‍ययन कर सार-रुप में 50 सर्वथा नये रागों का निर्माण कर उनका सरंक्षण किया, इस दृष्‍टी से उनका बहोत बडा़ योगदान रहा है।
संकेत शब्द: मालवा लोकसंगीत परम्‍परा, पं. कुमार गन्‍धर्व, लोकधुन
Dr. Asha Khare, Govt. Girls P.G. College, Chhatarpur (M.P.)

लोक संगीत परम्परा की राग संरक्षण में भूमिका

भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य अर्थ में राग रंजकता का वाचक है और विशेष अर्थ में वह एक ऐसी नादमय विशिष्टता क द्योतक है जो स्वर देह और भाव देह से समंवित है। राग एक प्रथक भाव है जो अन्य रागों की अपेक्षा अपना स्वतंत्र और विशिष्ट अस्तित्व रखता है। राग शब्द की प्रथम व्याख्या मतंगमुनि ने वृह्द्देशीय ग्रंथ में की। ग्राम-मूर्छना जाति का स्थान धीरे-धीरे राग ने ग्रहण करना शुरू किया। रागों क संरक्षण विभिन्न माध्यमों से हो रहा है जिसमें लोकसंगीत परम्परा एक प्रमुख माध्यम है।
प्राचीन काल से वर्तमान काल तक लोकसंगीत की परम्परा निर्बाध गति से चली आ रही है। लोकसंगीत के अंतर्गत लोकगीतों के धुनों में रागों के स्वर मिलते हैं, यथा दुर्गा, भूपाली, पीलू, भैरवी, खमाज आदि। शास्त्रीय संगीत का उत्पत्ति स्थल ये लोकगीत हैं। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की विभिन्न संस्थाओं द्वारा लोकसंगीत के कार्याक्रम आयोजित किये जाते हैं। आकाशवाणी, दूरदर्शन, सांस्कृतिक केन्द्र, संगीत विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के माध्यम से लोकसंगीत को संरक्षण मिल रहा है। लोकसंगीत के कलाकारों को उपाधियाँ, सम्मान आदि प्रदान किया जाता है। अतः रागों के संरक्षण में लोकसंगीत की अहम भूमिका है।
संकेत-शब्द: राग, लोकसंगीत, लोकगीत, संरक्षण
Soniya. Ph.D. Scholar, Faculty Of Music And Fine Arts, Delhi University

लोक संगीत परम्पर की 'राग  रक्षण

लोक संगीत किसी भी देश अथवा संस्कृति की आधारशिला है। भारतीय संगीीत एक अनूठी परम्परा है, जो सदियों से पीढ़ी -दर-पीढ़ी मौखिक परम्परा के रूप में चली आ रही है।  लोक संगीत 'लोक की अमूल्य धरोहर है। इसमें जन-जीवन की सुख-दुख की अनुभूतियों का सुंदर समन्वय मिलता है। लोक संगीत मानव की उत्पति के साथ ही जुड़ा है। आरंभ से ही अपने मनोभावों की सरल एवं मधुरतम अभिव्यकितयों को सहज एवं मुक्त भाव से प्रकट करना मानव का स्वभाव रहा है। मानव के विकास के साथ लोक संगीत का भी विकास हुआ। लोकसंगीत सहज एवं सुलभ होने के फलस्वरूप भावों के विनिमय का सबसे उत्कृष्ट, लोकप्रिय और प्रचलित माèयम बन गया। तत्पश्चात मानव ने अपनी जिज्ञासा, तर्क, अभिरूचि अनुकरण और अभ्यास के सहयोग से लोकसंगीत के विभिन्न आयामों को विकसित एवं समृद्ध किया। संगीत की आंरभिक अवस्था की खोज करते हैं तो हम पाते हैं कि चार-पांच स्वरों की लहरियों से लोकसंगीत का उदगम हुआ। जिसे आगे चलकर 'राग संगीत में संरक्षण मिला। 'राग भारतीय संगीत की महत्वपूर्ण संकल्पना है। भारतीय संगीत के अनेक राग लोक संगीत की धुनों से निकले हैं। उदाहरण स्वरूप 'केसरिया बालम (मांड)  राजस्थान की प्रसिद्ध लोकधुन है, जो आज एक प्रचलित राग के रूप में शास्त्रीय संगीत की महत्वपूर्ण गेय विधाओं जैसे: भजन, गज़ल, में प्रयुक्त किया जाता है। इसी प्रकार राग पहाड़ी, बरवा, गारा, झिंझोटी, काफी आदि अनेक राग हैं, जो लोक धुनों से निकले हैं। इनकी धुन से राग तक की यात्रा का विस्तृत विवरण मैं अपने शोध पत्र के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगी। 
संकेत-शब्द: राग, लोकसंगीत, लोकगीत, संरक्षण
Prof Sharmila Taylor, Richa Upadhyay. Banasthali Vidyapith, Banasthali

रागों के संरक्षण में राजस्थानी लोक गीतों की भूमिका

राजस्थानी होली गीत ‘म्हारी होली के आसार-पासर जौर चणां, गीत में ऩि स रे म रे सा, ऩि सा रे म म रे ऩि सा रे सा, रे म रे रे सा इन स्वर संगतियों से ‘राग मध्यम सारंग’ का आभास होता है। इसी प्रकार यहां के ‘गणगौर गीत’ ‘खेलण दो गणगौर भंवर माने’, गीत की स्वरलिपि देखने से यह ‘तिलक कामोद राग’ में निबद्ध प्राप्त होती है प ऩि ऩि सा सा-सा सा ऩि सा सा निसा रे गरे ग। राजस्थानी ‘लहरियो गीत’ ‘लैरियो लैद्यो जी राज’ गीत की स्वरलिपि पर ध्यान देने से स्पश्ट होता है कि यह लोक होते हुए भी पूर्णत: राग पर आधारित है। यह गीत ‘राग लंकादहन सारंग’ पर आधारित है। इसकी मुख्य स्वर संगति निम्न है - स म म प ग ग म-प-म ग ग म। म प प सा प प नि प म ग म प प ध नी प म प म। वहीं राजस्थानी ‘सावन गीत’ ‘बदली बरसे क्यों ना ए म्हारा भंवर सारा, है। उक्त लोक गीत की स्वरलिपि को ध्यान से देखा तो ज्ञात होता है कि इस लोक गीत में ‘राग पीलू’ की स्पश्ट छाया दृश्टिगत होती है। इसमें प्रयुक्त राग बोधक मुख्य स्वर समुदाय निम्नवत् हैं - ग़ रे सा ऩि ऩि सा ग- रे ग सा, प प म म ग रे सा ऩि ऩि सा। जहाँ राजस्थानी लोकगीतों में प्रचलित राग पीलू, वृन्दावनी सारंग, हिंडोल, काफी जैसी रागें संरक्षित हुर्इ हैं वहीं लंकादहन सारंग, खमायची, जंगला, गूंडमल्हार जैसी अप्रचलित रागों को भी यहां के लोक गीतों ने सरंक्षण प्रदान किया है।

 

Contribution: Of Classical Gharana-s

Tajinder Pal Singh. Ph.D. Scholar, Faculty Of Music And Fine Arts, Delhi University

Role of Gharana in Preservation of Ragas

In the field of Hindustani music, the word Gharana means “style”. The word Gharana is from the word ‘ghar’ (home). Obviously, an outstanding artiste develops a style of his own, which bears a distinctive mark. At first, he confines it to the members of his family i.e. his gharana. However, if outsiders are attracted to this style, then he welcomes them into his fold. Thus Gharana becomes an extension of ‘ghar’. Whenever any work of imagination within the boundary of the ragas gets a practical shape it impresses the listeners with a variety of aesthetic pleasure and produces a lasting quality effect that becomes a distinct characteristics of all generations of pupils belonging to that lineage, thus establishing a Gharana. In Hindustani music there are different Gharanas, each differing from the other in marked diversity in exposition of Ragas. A particular Raga can be presented in diverse styles in different Gharanas even the same composition can be presented differently with equal impression. For example the same Raga “JaiJaiWanti” is treated by Ustad Amir Khan (Indore Gharana) in a grave and mellifluous way while Ustad Fiyaz Khan (Agra Gharana) sang it in a forceful staccato. A musician displays his talent through the medium of performance. An Indian classical performer, while performing, not only pays attention to the purity of a Raga but also maintains the specialty of a Gharana. The specialty, often incorporated by exclusive passages, does not distort the form of the Raga.
“Variety, it is said, is the spice of life”. There is no doubt that Gharanas provide that variety. Thus, preserve Ragas from extinction.
Keywords: Gharana,Hindustani music, Bandish, Raga, Conservation

Dr. Neelam Paul. Dept. of Music, Panjab University, Chandigarh

राग संरक्षण में आगरा घराने का योगदान

राग यानि जिसके अन्तर्गत स्वर, लय और पद (गायन के संदर्भ में) का प्रस्तुतिकरण एक विशेष रीति, शैली व परम्परा के अनुसार किया जाए, जिसमें तत्सम्बन्धी नियमों व स्वर लगावों, स्वर समूहों आदि द्वारा प्रस्तुतिकरण हो, उसे राग या राग-संगीत कहा जाना चाहिए। रागों के संरक्षण हेतु भिन्न-भिन्न परम्पराओं, बानियों, एवं घरानों का अमूल्य योगदान रहा है। जहां नौहार, खंडहार, डागुर व गोबरहार बानियों द्वारा ध्रुवपद व धमार शैली की परम्परा का निर्वाह हुआ वहीं खयाल शैली में आगरा, ग्वालियर, दिल्ली, पटियाला, जयपुर आदि-आदि घरानों की मुख्य भूमिका रही है।
आगरा घराने का प्रारम्भ नायक गोपाल के शिष्यों में से श्री अलक दास से माना जाता है। इनके शिष्य हाजी सुजान खां इस घराने के संस्थापक माने जाते हैं। अब तक इस घराने के गुरूजनों, कलाकारों, वागेयकारों व कलावन्तों ने राग संरक्षण हेतु अनेक प्रयास किए। संगीत के क्षेत्र को एक समृद्ध शिष्य परम्परा, कलाकार व रचनाकार देते हुए रागों के संरक्षण हेतु अनेक बन्दिशों का निर्माण किया। इन बन्दिशों में कलाकारों ने अपने उपनाम का उपयोग किया। इनमें उस्ताद महबूब खां साहिब (दरस पिया), उस्ताद विलायत हुसैन खां साहिब (प्रान पिया), उस्ताद फैयाज़ खां साहिब (प्रेम पिया), उस्ताद तसद्दुक हुसैन खां साहिब (विनोद पिया), उस्ताद लताफत हुसैन खां साहिब (प्रेम दास), उस्ताद यूनुस हुसैन खां साहिब (दरपन), उस्ताद अकील अहमद खां साहिब (मोहन पिया) एवं पण्डित यशपॉल (सगुन पिया) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
पण्डित भातखण्डे द्वारा आगरा घराने के प्रचलित एवं अप्रचलित राग व बन्दिशों का संग्रह व संरक्षण लिखित रूप में किया गया जो आज की पीढी के लिए वरदान सिद्ध हुए हैं।
संकेत शब्द: घराना, गुरू शिष्य, परंपरा, नौहार, खंडहार, डागुर, गोबरहार, आगरा
Deepak Kumar Mittal*, Neera Sharma Raja Mansingh Tomar Music & Arts University, Gwalior

Tappa Compositions of Gwalior Gharana in Establishment of Raga

Tappa is a form of Indian semi-classical vocal music. Its specialty is its rolling pace based on fast, subtle and knotty construction. Its tunes are melodious, sweet and depict the emotional outbursts of a lover. Tappas were sung mostly by songstresses, known as Baigees, in royal courts. Tappa originated from the folk songs of the camel riders of Punjab, The Tappa style of music was refined and introduced to the imperial court of the Mughal Emperor Muhammad Shah. And later on by Mian Ghulam Nabi Shori or Shori Mian, a court singer of Asaf-Ud-Dowlah, Nawab of Awadh.
Various Tappa compositions of Gwalior gharana which are singing by many prominent living performers of gwalior gharana are Pt. Raja Bhaiya Poochwale, Pt. Laxmanrao Pandit, Shanno Khurana, Pt. Manvalkar, Dr. Ishwarchandra R. Karkare, Smt. Malini Rajurkar in india and other countries. Compostions of Gwalior gharana Tappa are created in specific ragas such as Khamaj, Kafi, Gaara, Bhairavi, Jhinjhoti, Pilu and Tilang. These compositions mostly performed in Punjabi language and Punjabi taal. The tappa compositions of this gharana are very different, attractive and aesthetic form of Indian classical music style.
The paper would present tappa notations of each style and composition of the ragas selected by performers of this gharana for establishment of Raga-s.
Keywords: Gwalior Gharana, Tappa, Establishment of Raga.
Rai Bahadur Singh. Ph.D. Scholar, Panjab University, Chandigarh.

राग संरक्षण में संगीत घरानों का योगदान

मध्यकालीन भारत मे बदली हुई राजनैतिक व्यवस्था ने संगीतिक वाङमय में भी अपना प्रभाव डाला। राजाश्रय में रह रहे संगीतकारों ने अपने-अपने राज्यों में अपनी राग परम्परा को आगे बढ़ाया। विभिन्न राज्यों में मैत्री भाव न होने, संचार व संपर्क के साधनों की कमी आदि विभिन्न कारणों से राग संगीत की अलग-अलग धाराएं बहने लगीं जो आगे चलकर घराना कहलाईं।
इन घरानों ने रागों के संरक्षण, संवर्धन एवं इनको आधुनिक युग तक पहुंचाने में मुख्य भूमिका निभाई। घरानों के प्रसाद से आज रागों की अमूल्य निधि हमारे पास मौजूद है। यही नहीं विभिन्न घरानों के प्रतिभासम्पन्न कलाकारों व विद्वजनों ने अपने घराने की विशिष्टता दर्शाने हेतु न सिर्फ अपने कला कौशल्य से रागों के इस खजाने में बृद्धि की ब्लकि घरानागत विशेषताओं के कारण आज हमें एक ही राग विभिन्न स्वरावलियों में सुनने को मिलता है यथा गौरी (भैरव अंग व पूर्वी अंग), जोगकौंस (कौंस व बागेश्री अंग) इत्यादि। साथ ही रागों में स्वरों की एकरूपता होते हुए भी प्रस्तुतिकरण में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। शैली विशेष में निपुणता प्राप्त करने के प्रयासों के कारण ही ठुमरी जैसी शैलियों का विकास हुआ व इनके साथ कुछ विशेष रागों के नाम सदा के लिए जुड़कर अमर हो गए जैसे खमाज, तिलन्ग, भैरवी, काफी इत्यादि इत्यादि। यह इन घरानों की अपनी राग परम्परा के प्रति श्रद्धा व निष्ठा ही थी कि मध्य काल के अन्त (अंग्रेज़ी शासन) में जब राजाश्रय का साया सर से उठ गया तो भी घरानागत कलाकारों व विद्वानों नें रागों की अमूल्य धरोहर को नहीं खोया और अपने शिष्यों व परिजनों के द्वारा इसे नई पीढी को हस्तान्त्रित किया। यही नहीं राग परम्परा के हस्तान्त्रण में घराना-परम्परा ने कभी रागों की गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं किया व अधिकारी व योग्य शिष्यों को ही राग संगीत का खजाना सौंपा ताकि इस दैवी परम्परा का ह्रास न हो।
रागों के क्रियात्मक पक्ष के संरक्षण की बात की जाए तो आज भी घरानागत पद्धति का महत्व बरकरार है।
संकेत शब्द: घराना, परंपरा, राग, संरक्षण।
Kulwinder Singh. Ph.D. Scholar, MD University, Rohtak.

राग संरक्षण में गुरमत संगीत का योगदान

भारतीय संगीत में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक समय परिवर्तन के साथ अनेक प्रकार की गायन शैलियाँ प्रचार में आर्इ हैं जैसे प्रबन्ध्, ध्रुपद, धमार, ठुमरी, टप्पा, गुरमत-संगीत आदि यह सभी नवीन गायन शैलियाँ अपने भीतर हिन्दुस्तानी शास्त्राीय संगीत के मूल आधरभूत तत्वों को समाए हुए है।
प्रत्येक धर्म का एक अपना धार्मिक ग्रंथ है। तथा इन सभी धार्मिक ग्रंथों में से गुरू ग्रंथ साहिब ही एक मात्राा ऐसा ग्रंथ है जो कि पूर्ण रूप से रागाधरित है और लिखित रूप में हमारे पास उपलब्ध् है।
आधुनिक गुरूमत गायन शैली का जन्म इसी ग्रंथ से हुआ है तथा यह गायन शैली गुरूग्रंथ में वर्णित 31 रागों पर आधरित है।
प्रस्तुत शोध् पत्र में गुरमत संगीत के 31 रागों में से; छ: गुरमत संगीत के रागों; मारू - मारू बिहाग, धनाश्री - भीमपलासी, तुखारी – मधुवंती , सोरठ - देश, आसा - मांड, तिलंग – जोग का हिन्दुस्तानी संगीत में प्रयोग होने वाले रागों के साथ तुलनात्मक अध्ययन तथा गुरमत संगीत के माध्यम से राग संरक्षण में योगदान का कार्य परिलक्षित किया जाएगा।
संकेत-शब्द: गुरमत संगीत, राग, प्रयोग, गुरू ग्रंथ साहिब, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत
Mrs. Rupali Gokhale. Gwalior

राग सरक्षंण मे सांगीतिक घरानों का योगदान

संगीत की परंपरा वेदिक काल से लेकर वर्त्तमान समय तक चली आ रही हैI रामायण1, महाभारत2, जैसे ग्रंथ एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित दृष्टांत आदि संगीत से जुड़े हुए पाये जाते हैI संगीत भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है, जिसमें ग्वालियर का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है ग्वालियर की संगीत परंपरा तोमर वंश के पूर्व ही अत्यंत समृद्शाली रही है किन्तु इसे घरानें का आकार देने का श्रेय हस्सू-हद्दु खां द्वारा माना गया हैI ग्वालियर घराना सबसे प्राचीनतम घराना माना गया हैI जहाँ रागों का अविष्कार हुआ एवं उन्हें प्रश्रय मिलI3 ग्वालियर घराने से ही अनेक घरानों का जन्म हुआ जैसे - आगरा, जयपुर, किराना आदिI4
ग्वालियर घरानें में ही संगीत सम्राट तानसेन जैसे कलाकारों ने 6 राग एवं 36 रागनियों को प्रश्रय दिया जिनमें भैरव, मालकोंस, हिंडोल दीपक इत्यादि है इसी घरानें में ध्रुपद धमार ख्याल टप्पा जैसी शैलियों को मुख्य रूप से संजोया गयाI ध्रुपद का अविष्कार मानसिंह के काल में माना गया राग तोड़ी मल्हार जैसे रागों का अविष्कारक ग्वालियर घरानें को माना जाता है ग्वालियर घराने को भारत का शिराज कहा जाता हैI5 आधुनिक काल में ग्वालियर घराने के मुख्य रागों को पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर एवं भातखण्डेजी,6 ने पाठ्यक्रम में शामिल करते हुए संजोया है जैसे यमन, काफी, खमाज, भैरव, आसावरी से लेकर मुल्तानी इत्यादि रागों को प्रमुखता मिली हैI7 जिसे वर्त्तमान में ग्वालियर घराने के गायक श्री लछमण पंडित मीता पंडित मालिनी राजुरकर डॉ. जयंत खोत इत्यादि गायकों ने संरक्षित किया है हाल ही में ग्वालियर में आयोजित तानसेन समारोह में ग्वालियर घराने कि यशस्वी एवं सुप्रसिद्ध गायिका सुश्री मीता पंडित ने ग्वालियर घराने का प्रति निधित्व कियाI8
संकेत-शब्द: ग्वालियर घराना, तानसेन, ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा

Contribution: Of Classical Poet-Composers

Prof. Neera Grover. Department of Music, S.N.D.T. University, Mumbai

वाग्गेयकारों का अप्रचलित रागों की समृद्धि एवं संरक्षण में योगदान

हिन्दोस्तानी संगीत की आधारशिला राग है। सात शुद्ध एवं पाँच विकृत स्वरों के विशाल क्षेत्र में कर्इ रागों का निर्माण होता आ रहा है। रागों का इतिहास देखते हुये यह कहना उचित है कि किसी भी एक समय में समस्त राग प्रचलित नही रहे। लोकवृति के अनुसार रागों का क्रम सदा ही बदलता रहता है। जो राग आज प्रचार में आ रहे हैं वे राग कभी अप्रचलित थे जैसे बिलासखानी तोड़ी, गौरी के प्रकार, झिझोटी इत्यादि! इसि प्रकार जो राग आज से 20 वर्ष प्रचलित माने जाते थे वे धीरे-धीरे अप्रचलित होते जा रहे हैं जैसे कामोद, देशकर, हिंडोल, बिलावल के प्रकार इत्यादि। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी एक समय में दो सौ या डार्इ सौ रागों के प्रचलन की भी संभावना रहती है। अत: प्रचलित एवं अप्रचलित रागों के इस क्रम का निर्माण चलता ही रहता है। रागों के इस परिवर्तनशील क्रम जो अप्रचलित रागों को सुरक्षित एवं समृद्ध रखते आये हैं वे है वाग्गेयकार है जो अपनी बंदिशों रचना द्वारा रागों का स्वरूप और माधुर्य को बनाये रखते है। विभिन्न घरानों के प्रतिनिधि वाग्गेयकारों ने समय-समय पर अनेक बंदिशों का निर्माण किया।
प्रस्तुत शोध-पत्र में हमने कुछ वाग्गेयकारों की रचनाओं का संकलन स्वरलिपि सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन वाग्गेयकारों ने मुख्य रूप से उस्ताद अल्लादिया खां, उ. फैयाज़ खां, उस्ताद खादिम हुसैन खां, उस्ताद अमानअली खां, पंडित रामाश्रय छा, श्री रमेश नादकर्णी आदि के नाम उल्लेखनीय है। इनके द्वारा रचित बंदिशों के अèययन में अप्रचलित रागों के सरक्षण की चुनौती का एक सशक्त विकल्प है। ऐसा हमारा विश्वास है।
संकेत शब्द: वाग्गेयकार, राग, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत, स्वरलिपि

Dr. Suvarna Wad. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

भारतीय सांगीतिक विरासत राग के संरक्षण में पं.रामाश्रय झा का योगदान

भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं भारतीय दर्शन यह दो तत्व भारतीय संस्कृति के धरोहर हैं। इन दो तत्वों का संरक्षण एवं संवर्धन ही भारतीय संस्कृति की रक्षा कर उसे अक्षुण्ण बना सकता है। भारतीय संगीत का 'राग तत्व उसकी विशेष विशेषता है। 'राग संगीत1 ही संगीत का वह पक्ष है जो संगीत को भारतीय दर्शन से भी जोडता है। क्या है यह राग संगीत और कैसे है यह भारतीय संगीत की विशेषता? तथा क्या इसका संरक्षण आवष्यक है? यदि हाँ तो कैसे? इन सब प्रष्नों के उत्तर का शोध इस शोध पत्र में किया गया है। भारतीय संगीत में राग का संरक्षण विभिन्न अंगों द्वारा किया जाता है जैसे शास्त्रकार बंदिशकार शिक्षक गायक कलाकार आदि के द्वारा। उपर्युक्त कार्य में सभी अपनी महती भूमिका निभाते हैं। पं. रामाश्रय झा को इस शोध पत्र के लिये विशेष रुप से चुनने का मुख्य कारण यही हैं कि पं रामाश्रय झा संगीत के ऐसे साधक है जिन्होंने अपने जीवन में बंदिशकार शिक्षक गायक कलाकार सभी तरह की भूमिकाओं का निर्वाहन किया है। शास्त्रकार वे हैं जो शास्त्र की बात करतें है यथा श्रृति, ग्राम, मूर्धना, मेल, राग इत्यादि का विष्लेषण एवं विवेचना। भारतीय संगीत में 20 वी सदी में पं. ओंकारनाथ ठाकुर , पं. लालमणि मिश्र, विदुषी प्रेमलता शर्मा,विदुशी सुभद्रा चौधरी, प्रा अशोक रानाडे आदि इसके उदाहरण है। पं. रामाश्रय झा ने शास्त्र की चर्चा विशेष रुप से नही की है परन्तु रागों का उनके द्वारा किया गया विश्लेषण रुप से उल्लेखनीय है। विभिन्न प्रचलित एवं अप्रचलित रागों की बंदिशों का निर्माण करके राग स्वरुप को दर्शाकर रागों के स्वरुपों को संरक्षित रखने का महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा किया गया है और राग प्रस्तुतिकरण की विभिन्न बंदिषों जैसे ख्याल, तराना, ध्रुपद, धमार रागमाला की रचना उन्होंने की है। यह शोधपत्र पं. रामाश्रय झा के राग संबंधित कार्य पर विशेष प्रकाश डालता है।
संकेत शब्द: वाग्गेयकार, पं.रामाश्रय झा, बंदिश, गत, राग, तान, स्थार्इ, अप्रचलित।
Prof Roopshri Thakur. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

पं. लालमणि मिश्र: रागोत्सर्जक वाग्येयकार

संगीत के प्रायोगिक पक्ष के अन्तर्गत राग की चर्चा करते समय पं. लालमणि मिश्रजी ने अपनी पुस्तक में ऐसे रागों की चर्चा की है, जिन्हें प्राय: संगीत जगत में महफिलों में गाने बजाने के योग्य नहीं समझा जाता था, लेकिन प्राय: ऐसे ही रागों की संरक्षण की सर्वाधिक आवश्यकता है।
पं. मिश्र जी ने सिंदूरा, मालगुंजी, मल्हुआ केदार जैसे रागों का वीणा पर विशेष रूप से वादन किया है, अपनी विशिष्ट वादन शैली के कारण उन्होंने अनेक अप्रचलित रागों को प्रचलित एवं संरक्षित करने में विशेष योगदान दिया। इन रागों के संरक्षण हेतु आपने अनेक बंदिशों का निर्माण भी किया तथा तंत्रीनाद जैसी पुस्तक की रचना की। पं. लालमणि मिश्र जी की पुस्तकें एवं उनकी 'वादन शैली राग के संरक्षण एवं राग स्वरूपों के उन रहस्यों को प्रत्यक्ष रूप से संगीत जगत के समक्ष रखने वाली हैं जिनकी कल्पना संगीत जगत में कभी की ही नहीं गर्इ।
पंडित जी द्वारा स्वयं निर्मित 7 रागों का निर्माण उनकी राग संरक्षण की भावना से किया गया कार्य प्रतीत होता है सामेश्वरी राग उनके द्वारा 3 वर्ष तक सामवेद के स्वरों व गान पद्धति के कठिन चिन्तन मनन व परिश्रम से उत्पन्न राग है, जिसमें रागेश्री व कलावती की छाया है। इसी प्रकार से राग जोग तोड़ी है जो राग जोग के गांधार को षडज मान कर मूच्र्छना आधार पर सिद्ध होती है।
संकेत-शब्द: वाग्गेयकार, राग संरक्षण, पं. लालमणि मिश्र, सामवेद, वीणा, वादन शैली

Ashish Masatkar, Ph.D. Scholar, MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

पद में संरक्षित राग

भक्ति के सभी कवि प्राय: संगीतज्ञ थे तथा सभी गायक कवि । अतएव भक्ति काव्य में संगीत के प्रभूत तत्व उपलब्ध होते हैं। यहाँ उन रागों का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है,जो पदों के माध्यम से संरक्षित रहे हैं । अनुसंधान पत्र में सम्बंधित कुछ स्वरलिपियों का उद्धरण अवश्य होगा । साथ ही उनके विश्लेषन के माध्यम से शीर्षक को स्‍पष्ट करने का प्रयास होगा। विनय के पदों में जहाँ बिलावल, कान्हड़ा, धनाश्री, रामकली, नट, केदार, सारंग, मल्हार, परज, बिहाग, सोरठ, आसावरी, देवगंधार, तोड़ी, झिन्झोटी, गौरी, खंबावती तथा मुल्तानी आदि दैन्य एवं विनय-भाव-प्रधान रागों का प्रयोग हैं, वहीं करूण प्रसंगों में केदार और गुणकली, श्रंगार प्रसंगों में मालकौंस, और उल्लास-विनोद-प्रसंगों में काफी, जैतश्री, जैजैवन्ती, कान्हड़ा, ललित, गौड़मल्हार, नटभैरव, पूर्वी, बसंत और सारंग एवं वीरता के प्रसंगों मे मारू राग की रस विषयानुकूल सुखद अनुभूति दिखलाई देती हैं।
संकेत शब्द: भक्ति काव्य, स्वरलिपि, परंपरा, रस।

Contribution: Of Guru-Shishya teaching system

 

Dr. Geeta Mishra. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

भारतीय सांगीतिक विरासत राग संरक्षण में उस्ताद अलाउद्दीन खाँ का योगदान

राग संरक्षण हेतु आधुनिक मनीषियों में विशिष्ट स्थान रखने वाले उस्ताद अलाउद्दीन खाँ ने अनेक गुरुओं से संगीत के विभिन्न धाराओं में विधिवत शिक्षण ग्रहण किया। उन्होंने सेनी घराने के उस्ताद वज़ीर खाँ से रामपुर में सुरबहार, सुर-सिंगार व सरोद की तीस वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की और रागों को विरासत के रूप में सम्भाल अनेक शिष्यों को वैसे ही सिखाया।
उन्होंने दुर्लभ वाद्यों से रागों का संरक्षण किया। वाद्य- आविष्कार व निर्माण के साथ वृन्द-वादन हेतु अ‍ॅर्केस्ट्रा स्थापित किया।
संकेत-शब्द: राग संरक्षण, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, उस्ताद वज़ीर खाँ, सेनी घराना

Dr. Sarita McHarg. Ujjain

Teaching Methods of Baba Ustad Allaudin Khan

Following Guru-Shishya Parampara in an open manner vis-à-vis Gharana tradition, Baba advised his disciple to regulate their lives by the most tenacious pursuit of purity of body and mind in addition to the single minded sadhana. This systematic training needed regular practice for years together with implicit devotion and single – minded dedication. After the completion of the preliminaries,the student had to take the preliminary training in tabla and pakhawaj and display it correctly in the presence of Baba, so that they could have a sound of knowledge of laya which covered deri, ari, sawai, jhulna, piplika, sam, visham, etc.; training of gat was given in different varieties of tabla . For Dhrupad, Dhamar, Jhaptal and Teental or trital, etc. separate gats were taught along with tan, tora, layakari.
Keywords: Guru-Shishya tradition, Baba Ustad Allaudin Khan, Indian Classical Music, Raga conservation

Dr. Saubhagyavardhan Brahaspati, Govt. College, Chandigarh

गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा रागों का संरक्षण

भारतीय शास्त्रीय संगीत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अपना एक अलग स्थान रखता है जिसका कारण इसकी राग पद्धति है। स्वर तो सात ही हैं तथा पाँच उनके विकृत रूप हैं। इन बारह द्वारा ही भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक रागों की जन्म हुआ। यदि कोमल स्वरों की बात की जायें तो भैरव, तोड़ी तथा मारवा थाट में कोमल ऋषभ का ही प्रयोग होता है परन्तु इसका स्थान भिन्न-भिन्न है। इसी प्रकार पूर्वी थाट का ऋषभ जो पूरिया धनाश्री में प्रयोग होता है तथा मारवा का ऋषभ जो पूरिया कल्याण में प्रयुक्त होता है उसे अभ्यस्त कान तथा गला ही प्रयोग कर सकते है। इसकी शिक्षा ऐसा गुरू ही दे सकता है जिसने अपना जीवन संगीत को समर्पित किया हो तथा ऐसा गुरू ही आपने शिष्य को इसकी शिक्षा दे सकता है। सिर्फ विद्यालयों में संगीत सीख कर सिखाने वाला गुरू इस प्रकार की शिक्षा अपने शिष्य को चाहकर भी नहीं दे सकता । क्योंकि आजकल की शिक्षा पद्धति में हारमोनियम के प्रयोग ने इस प्रकार की शिक्षा को ग्रहण लगा दिया है। आज गायकों को भूपाली गाना तो आता है परन्तु देशकार नहीं। भैरव गाना तो आता है परन्तु कालिंगड़ा नहीं । विभिन्न रागों में विभिन्न स्वरों का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है यह शिक्षा हमें गुरू -शिष्य परम्परा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है तथा इसी परम्परा द्वारा ही रागों का संरक्षण किया जा सकता है।
संकेत शब्द: गुरू -शिष्य परंपरा, राग, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत

Manisha Sharma. Shishukunj International School, Indore

गुरू शिष्य शिक्षण पद्धति की राग संरक्षण में भूमिका

संगीत शिक्षण पद्धति दो तरह से प्रचलित रही है:
इन दोनों की शिक्षण पद्धति अलग अलग है किन्तु गुरू एक ही है । संगीत में इसे दो विभिन्न अर्थों में शिक्षण पद्धति नाम दिया जाता है। पहला वर्ग जिसमें क्रमागत रूप से सिलसिलेवार रागों को सिखाया जाता है और उसे संगीत जगत में शागिर्दी कहा जाता है तथा दूसरे वर्ग में ऐसे रागों का अभ्यास कराया जाता है जो प्रायः पहले वर्ग के शागिर्दों को नहीं कराया जाता । संगीत जगत में इस तरह का प्रशिक्षण तालीम कहा जाता है ।
शागिर्दी व तालीम शिक्षा पद्धति के राग भी अलग अलग होते हैं तथा उन्हीं का अभ्यास सर्वप्रथम कराया जाता है। जैसे ग्वालियर गायकी की परंपरा में परंपरागत रागों को सीखने का महत्व अवश्य है किन्तु शागिर्दों को बिलावल से प्रथम पाठ दिया जाता है जबकि तालीम लेने वालों को अल्हैया या भूप से आरंभ कराया जाता है। इसी तरह अन्य घरानों की भी व्यवस्था है। इसीलिए संगीत की शिक्षा पद्धति में घराना एक होने पर भी उसके शिष्यों की प्रस्तुति में भिन्नता देखी जा सकती है। शिक्षण पद्धति की यह भिन्नता ही भैरव, बिलावल, ललित, हिंडोल, श्री, मेघ, जैसे रागों को सरंक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। केवल घराना ही रागों का संरक्षक नहीं है अपितु उसकी शिक्षण पद्धति भी उसे सरंक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।
संकेत शब्द: घराना, गुरू शिष्य, परंपरा, तालीम, शागिर्द

Contribution: Of Music Institutions

Dr. Uma Shankar Sharma Bhatkhande Music College, JABALPUR

Role of Institutional Music System to Conserve Ragas

In my research paper I will like to throw light upon that how Institutional Music Teaching System has conserve Ragas and music of our country . You all are aware that before Shri Bhatkhande Jee’s research work music was in a very scattered manner. In that period some so called ustads were commanding the music system of India. Whtever they say was the ultimate truth about that Raga. Whatever they sing or play according to their Gharana that was the only form of Raga. In that period every ustad of each Gharana had his own opinion about the same Raga. That is why there was a very chaotic situation in our music system.
In such a chaotic situation Pt. Bhatkhande Jee’s hard work had saved our Ragas. He created the Music Teaching System by framing a notation System for Indian Music, in which, the composition in our music can be noted down. That’s how we saved so many Ragas and old compositions. Pt. Bhatkhande Jee also wrote a series of books on the theory of Indian Music elaborating each and every point clearly. Pt. Bhatkhande Jee also wrote a series of books on the practical aspect of music and noted down different compositions in each Raga. So I feel that whatever guidelines have been giving by Pt. Bhatkhande Jee, Institutional Music System is following the same path and conserving Indian Ragas through this music teaching system given by Pt. Bhaatkhande and Pt. Paluskar.
Keywords: Raga, Preservation, Education, Training, Bandish, Bhatkhande, Music Institutions

Contribution: Of Thumri Compositions

Smt. Rachna Sharma. Banasthali Vidyapith, Banasthali

सुप्रसिद्ध गायिका सिद्ध्वेश्वरीदेवी जी का ठुमरी गायन के संरक्षण में योगदान

उत्तर हिन्दुस्तानि संगीत पद्धति की गान विधाओं में ठुमरी का एक अलग स्थान है। ठुमरी संगीत की वह शैली है जो मुख्यत स्रिंगार रस से ओत प्रोत है व्यवहारिक रूप में इसमें कल्पना को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है यह अपने रागो के स्वरों की सीमा का उलंघन कर सकती है क्यों कि यह अपनी कल्पना के अनुसार अन्य सहजातीय रागों के स्वरप्रयोग कर सकती है और उन स्वरोके आलापों और सुंदरता को बढाने वाले अन्य अलंकारों का उस सीमा तक और उस ढंग से प्रयोग करती है जहां तक वे इसको सजाने में सहायक होते हैं ।
ठुमरी, कजरी, चैती आदि जैसी उपशास्त्रीय गायन विधाओं को प्रतिष्ठा दिलाने व अपनी गायकी द्वारासंरक्षित करने का श्रेय जिन कलाकारों को जाता है उनमें सिद्ध्वेश्वरीदेवी प्रमुख हैं। ठुमरीपर उनके योगदान का वर्णन अपने शोध पत्र में करने का प्रयत्न करूँगी ।
संकेत-शब्द: सिद्ध्वेश्वरीदेवी , राग संरक्षण, , ठुमरी, कजरी, चैती

Contribution: Of Classical Dance Compositions & Theater

Dr. Sunita Phadnis. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

Marathi theatre and its contribution in the conservation of Music

It is said that the Marathi Natya Sangeet is a contribution from the Marathi theatre and has helped conserve different Ragas, as the music through plays settles very well even in any ordinary person’s heart. The tradition of different plays and dramas with music began in 1880 from the play ‘Sangeet Shakuntal’. 1880-1930 was the golden age of musical plays with unforgettable Ragas. Ragas were presented in their purest form without change or alteration. Many forms of music like khayal, tarana, thumri, kajri, hori, chaiti, ghazal, qawwali, laavani, saaki, dindi, aarya, abhanga have been used freely in musical theatre and thus conserved through theatre. Marathi musical theatre prospered due to excellent music directors like Shri Bhakhle, Govindram Tembe, Master Krishnarao, Pandit Ram Marathe, Pandit Jeetendra Abhisheki, Chota Gandharva etc.
Musical theatre gave rise to the use of different Raga. Nath ha mazha (Raga Yaman), Anande natati (Raga Malhar), Ugavala Chandra punavecha (Raga Malkans), Kathin kathin kiti purush hriday baai (Raga-YamanKalyan), Katu yojana hi vidhichi (Raga-Shankara), Anrutachi Gopala (Raga Surdasi Makhar), Ekla nayanala vishay to zala (Raga Pahadi), Krishna mazhi mata (Raga Bageshri), Kon asasi tu nakale majala (Raga Jogkans), Khara to prema (Raga Pahadi-Mand), Guru suras gokuli (Raga Jayjaywanti), Jay Gange Bhagirathi (Raga Kalavati), Jay Shankara Gangadhara (Raga AhirBhairav), Jayostute Ushadevate (Raga Deskaar), Zani de kar ya (Raga Adana), Talmal ati antarat (Raga Sohani) and many such more examples.

Dr. Suchitra Harmalkar. Govt. Girls P.G. College, Indore

नृत्य के गीति प्रकारों के माध्यम से राग संरक्षण

भारत में ईसा पूर्व भरत लोग गायन वादन नर्त्तन का कार्य किया करते थे, उनकी वह क्रिया कला न कहला कर तौरयात्रिकम कहलाती थी | स्पष्ट हैं कि भारत कि प्राचीन नृत्य शैली में गायन - वादन संयुक्त रहा करते थे | उसी परंपरा से बाद में अनेक नृत्य सहेलियो का विभिन्न क्षेत्रो में विकास हुआ कत्थक नृत्य शैली भी उनमे से एक हैं|
सभी शास्त्रीय नृत्य शैलियों कि तरह कत्थक नृत्य प्रदर्शन को प्रमुख रूप से दो भागो में बाटा जा सकता हैं | प्रथम उसका ' नृत पक्ष ' जिसे वादन के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता हैं तथा द्वितीय उसका नृत्य पक्ष जिसमे वादन के साथ गायन कि भी आवश्यकता होती हैं | नृत्य में भावो का प्रदर्शन किया जाता हैं भाव शब्दो के अर्थ स्पष्ट करतें हे तथा शब्दो से गीत कि संरचना होती हैं | कत्थक नृत्य में भावाभिव्यक्ति के लिए विभिन्न गीति प्रकारों का आश्रय लिया जाता हैं यथा - ठुमरी , भजन, कजरी, चैती होरी , झूला गीत, चतुरंग , ध्रुपद आदि | विभिन्न रागो में निबद्ध इन् गीति प्रकारों का प्रयोग नवरस गायक नायिका भेद, ऋतुवर्णन विशिष्ट प्रसंगो आदि को अभिव्यक्त करने में किया जाता हैं| गीतों कि प्रकृति के अनुसार विभिन्न विशिष्ट रागो में निबद्ध ये गीति प्रकार नृत्य कि भावाभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हे तथा नृत्य को और अधिक सार्थक व सम्प्रेषणीय बनाते हैं|
संकेत-शब्द: राग संरक्षण, गीति प्रकार, नृत्य
Sonal Sharma. MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

नृत्य में उपस्थित राग तत्व

गायन वादन एवं नृत्यं त्रयं संगीत मुच्यते यह विचार गायन वादन एवं नृत्य को सम्मिलित रूप में जानने का संगीत जगत का सर्व विदित विचार है। गायन, वादन एवं नृत्य तीनों कलाओं का संयोग संगीत है।
चूंकि नृत्य एक पराश्रित कला है, इसलिये गायन एवं वादन के अभाव में नृत्य की कल्पना असंभव है। गायन एवं वादन के सहयोग के कारण ही कहीं न कहीं नृत्य भी रागों का संरक्षक है। रागों के मिश्रण का जितना सुंदर संगम नृत्य गीतों में मिलता है, उतना और कहीं नहीं। कथक नृत्य का एक महत्वपूर्ण अंग ठुमरी पर भावों का प्रदर्शन है। अगर हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो प्राचीन समय में ठुमरी केवल नाच का ही विषय थी। वह गेय रूप में नहीं थी। परन्तु नवाब वाजिदअली शाह जो कि नृत्य के साथ गायन विधा के भी विद्वान थे, उन्होंने ठुमरी को गेय रूप में विकसित किया।
संकेत-शब्द: राग, संगीत, नृत्य, संरक्षण, ठुमरी
Priyanka Vaidya. Govt. Girls P.G. College, Indore

अष्ट नायिकाओं के माध्यम से भातखंडे कृत छोटे ख्याल (बंदिशों) में राग संरक्षण

हिंदुस्तानी कंठ संगीत शैलियों में ख्याल शैली विशेष लोकप्रिय हैं | विलम्बित व मध्यलय में गाये जाने वाले ख्याल अपनी लयकारी एवं श्रृंगारिकता के लिए नर्तकों में भी विशेष लोकप्रिय हैं |
नृत्य में अभिनय के माध्यम से कई गीति प्रकारों का प्रदर्शन होता है जैसे ठुमरी, ग़ज़ल, कजरी, होरी, चेती, दादरा आदि | सभी गीति प्रकार अपनी कुछ विशिष्टिता लिए हुए हैं, ठुमरी श्रंगारिक भाव के लिए प्रसिद्ध है, तो ग़ज़ल में ठहराव है, कजरी में वियोग व विरह, तो होरी में उल्लास व हास, परिहास | कत्थक में अष्टनायिकाओं का प्रदर्शन नया नहीं हैं, उन्हें विभिन्न गीति प्रकारों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता रहा है | अष्टनायिकाओं भी अपनी श्रृंगारिकता के कारण ख्याल कि बन्दिशों में जहां-तहां दिखाईं पड़ती हैं|
अभिनय के लिए नृत्य में ठुमरी सर्वाधिक प्रचलित शैली मानी जाती हैं| किन्तु कुछ ख्याल ऐसे मिलते हैं जिन पर अष्टनायिकाओं का श्रृंगार व उनकी अवश्थाएं इतनी सहजता से अभितीत कि जा सकती हैं, कि वे केवल गान के लिए हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता| कई नृत्य गुरुओं की बंदिशे ऐसी मिलती हैं जो नृत्य से ज्यादा गायक वर्ग में अधिक लोकप्रिय हैं |
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ख्याल कि कुछ बंदिशें ऐसी हैं जो गायन व नर्त्तन दोनों क्षेत्रों में प्रचलित हैं| ऐसी ख्याल बंदिशों को आधार बना कर उनका अष्टनायीकाओं के माध्यम से इस शोध पत्र में विश्लेषण करने का प्रयास किया गया हैं|
संकेत-शब्द: राग संरक्षण, गीति प्रकार, नृत्य, ठुमरी, अष्टनायिकाओं का श्रृंगार
Isha Bhat. Banasthali Vidyapeeth, Banasthali

राग लय और रंग – नर्तक के अंग

राजस्थान में नृत्यकला दो तरह से पनपी - एक ओर शास्त्रीय स्वरूप में तो दूसरी ओर लोकसम्पत्ति के रूप में शास्त्रीय लोकनृत्यों लोकनाटय शैलियों का विकास हुआ। कला में चाहे संगीत हो या वस्त्र-कला -- दोनों में ही कला के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए कला का आनन्द उठाया जा सकता है। एकता सामन्जस्थता स्थान लय आदि कला के उद्देश्यों को मिलाकर कला के सभी माध्यमों को बनाया जा सकता है। जिसमें लय एक महत्त्वपूर्ण कारक है। लोकानुरंजन या लोकानुष्ठान के लिए किए जाने वाले लोकनृत्य में अभ्यास एवं कुशलता का संयोग निशिचत रूप से रहता है। क्षेत्रीय स्तर पर विकसित होने वाले लोकनृत्यों में मेवाड़ क्षेत्र का गैर नृत्य शेखावाटी का गींदड़ एवं चंग नृत्य मारवाड़ का डांडिया नृत्य जालौर का ढ़ोल नृत्य बीकानेर के नाथ-सिद्ध का अगिन नृत्य अलवर तथा भरतपुर का बम नृत्य और सम्पूर्ण राजस्थान का घूमर नृत्य मुख्य है। इन नृत्यों में पहनने वाले वस्त्रों में लय की छाप देखने को मिलती है।
संकेत-शब्द: राजस्थान, राग संरक्षण, नृत्यकला , वस्त्र-कला

Contribution: Of Electronic Instruments

Gaurav Yadav. Ph.D. Scholar, MJ Govt. Girls P.G. College, Indore

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का राग संरक्षण में योगदान

थॉमस एल्वा एडिसन द्वारा निर्मित ध्वनी मुद्रण (ग्रामोफ़ोन) के कारण संगीत के कलाकारों की कला को वर्षों तक के लिये सुरक्षित रखना संभव हुआ। भातखण्डे जी ने भी ग्रामोफ़ोन का प्रयोग चीज़ों के संकलन करने हेतु किया। उनके रिकॉर्ड एक अमूल्य निधि के रूप में संगीत के इतिहास में बेजोड़ हैं। बाद में टेपरिकॉर्डर के अविष्कार से और इसकी सहज उपलब्धि से हर संगीत जिज्ञासु को ध्वनि रिकॉर्ड करने का एक आसान तरीका उपलब्ध हुआ। सन् 1927 में आकाशवाणी के प्रसारण होने से आम जन-मानस में शामिल सुधी श्रोताओं में शास्त्रीय संगीत को सुनने, सीखने तथा साथ ही अपनी इस अद्‌भुत सांस्कृतिक विरासत को संभालने व सहेजने की लालसा जाग्रत हुई। पुस्तकों की छपाई (प्रिंटिंग प्रेस) की सुविधा के कारण शास्त्रीय संगीत को बड़े पैमाने पर लिखित रूप में भी संरक्षित किया जा सका। आजकल अत्याधुनिक वॉइस रिकॉर्डर सॉफ्टवेयर का प्रयोग ध्वनि की गुणवत्ता को सुधारने के लिये हो रहा हैं। एवं ध्वनि को डिज़ीटल रूप में और बेहतर तरीके से संग्रहित करके संरक्षित किया जा रहा है। कलाकार के लिये सूक्ष्तम ध्वनि-कणों को प्रत्यक्ष करने की सम्भावना राग-तत्व संरक्षण में सहयोगी सिद्ध हो सकती है।

Solutions for Preservation: Education

Ritambhara Ranawat. Ph.D. Scholar, Mohanlal Sukhadia University, Udaipur

Writing on the Wall: Virtual to concretize the Abstract

In early times there was no importance given to writing the taught ragas and so notation system was not considered important. The disciple had to develop his power of retention to contain whatever was being taught orally. To record the pace of development in music notation systems came up. There were two types of Notation Systems which came into existence –
1. Paluskar Notation System
2. Bhatkhande Notation System.
This system helped students in a great way to write and retain the composition forever. However it could not clearly put the small embellishments of the human voice or instruments during actual music singing or playing. A large number of ragas that were manually written into the above two notation systems, were very helpful for all music students. Manual writing had some demerits in the changing scenario. As time passed and the dawn of technology took place where everyone was using computers to lessen the time and storage space on paper, these notation systems became obsolete. The resultant digital system enables the users especially musicians, to convert the manually written musical notations into digital format with simple key-strokes. One can save and share the composition to anyone in the whole world, as the signs of the notes can be easily understood globally. By just reading one table of signs we are ready to use Ome Swarlipi. I would establish how this notation by expressing complex compositions is helping in conservation of Indian musical heritage.
Keywords: Digital notation system, Ome Swarlipi, technology, Gat, Bandish, Composition, Raga, Conservation
Dr. Ibrahim Ali. Govt Kalidas Girls College, Ujjain

राग के संरक्षण में युगानुकूल नवीन माध्यमों के प्रयोग की आवश्यकता एवं तदनुकूल शिक्षण विधि

राग संरक्षण का विषय शास्त्रीय संगीत की भविष्य की सम्भावनाओं से जुड़ा है, क्योंकि संगीत की अन्य सुगम विधाएं रागों पर आधारित होने का लाभ तो ले सकती हैं किन्तु रागों के स्वरुप की मौलिकता बनाए रखना उनके द्वारा संभव नहीं।
स्वाभाविक रूप से इन समस्याओं का सामना भी युगानुकूल माध्यमों, साधनों व विधियों से कर के संगीत शिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार शास्त्रीय संगीत एवं उसके रागों के सही रूप को संरक्षित करने में सहायता मिलेगी। आज इलेक्ट्रॉनिक एवं कम्प्यूटर युग में जब संगीत के प्रसारण में आधुनिक साधन महत्वपूर्ण क्रान्ति ला रहे हैं, वैसे ही शिक्षण में भी इन साधनों का गुणवत्ता की वृद्धि के लिये लाभ उठाया जा सकता है।
आज कम्प्यूटर द्वारा ध्वनी के अंकन, एडिटिंग तथा प्रोसेसिंग की जो सुविधा सुलभ हो गई है, उसे शिक्षण में अपनाया जाए तो उत्साहजनक परिणाम देखे जा सकते हैं। गुरू से सुनकर ग्रहण किये गये सबक को यदि गुरू की आवाज़ में कम्प्यूटर पर रिकॉर्ड कर दिया जाए और विद्यार्थियों को उपलब्ध कराया जाए तो उनके लिये यह अत्यधिक सहायक सिद्ध होगा।
यद्यपि राग हमारे संगीत की अत्यधिक महत्वपूर्ण धरोहर हैं, तथा पारम्परिक बन्दिशों में रागों की स्वरूपगत विशेषताएं निहित हैं, किन्तु आज की प्रचलित भाषा में आज के प्रासंगिक प्रसंगों व विषयों पर रचा काव्य हमारे राग-संगीत को एक नई ताज़गी दे सकता है। अतः नई स्तरीय बन्दिशों की रचना करने वाले आज के वाग्येयकारों के कार्य का महत्व समझा जाना चाहिये।
संकेत शब्द: घराना, परंपरा, राग, संरक्षण।
Dr. Santosh Pathak & Nidhi Chitkaria. Banasthali Vidyapeeth, Banasthali

राग के संरक्षण में डिजिट्ल स्वराँकन पद्धति का योगदान

राग भारतीय संगीत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। आचार्य मतंग ने जाति को राग कि जननी कहा है। रन्जकता राग का अनिवार्य गुण है । बंदिश के माध्यम से राग के बदलते स्वरूप का ज्ञान होता है। परिवर्तन से राग ताल के स्वरूपों में बदलाव आये हैं जिनका प्रत्यक्ष प्रभाव बंदिशों में पड़ता रहा है। आधुनिक काल में संगीत के क्रियात्मक पक्ष को लिख्ने के लिये उसके प्रयोगत्मक चिन्हों के निर्माण पर विचारविमर्श शुरू हुआ । इस कार्य को मूर्त रूप प्रदान करने में आधुनिक काल के दो विद्वानों ने संगीत के क्रिया पक्ष को लेख बद्ध करने का कार्य प्रारम्भ किया। फलस्वरूप भारत में प्रथम बार इतने बृहद स्तर पर राग की बंदिशों का लेखन प्रारम्भ हुआ। आधुनिक काल में संगीत में आज एक ऐसी स्वरलिपि पद्धति की रचना होना आवश्यक हो गया है जो सार्वभौमिक हो। इसी विचार को पूर्णता प्रदान करने के लिये प्रो रागिनी त्रिवेदी ने ऐसी स्वरलिपि की कल्पना की जो भारतीयों के लिये सरल हो ही, विदेशियों के लिये भी आसानी से ग्रहण करने लायक हो । स्वर लिपि का सृजन लगभग ज्यामितीय चिह्नों के द्वारा किया गया है जो “ओम-स्वरलिपि“ तालिका में दर्शाया गया है। भारतीय संगीत के रागों की शुद्धता के संदर्भ में बंदिशों का संरक्षण आज वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा डिजिट्ल पद्धति से कर सकते हैं। इसका विस्तार हम अपने शोधपत्र में देने का प्रयास करेंगे।
संकेत शब्द: ओम-स्वरलिपि, डिजिट्ल स्वराँकन पद्धति, बंदिश, राग, संरक्षण।

Solutions for Preservation: Performance

Smita Khanwalkar. Govt. M.L.B. P.G. Girls College, Kila Bhawan, Indore

अप्रचलित रागों की राग-संरक्षण में भूमिका

हमारे प्राचीन मनीषियों ने हज़ारों रागों की वैज्ञानिक तरीके से रचना की है, यह हम भलीभांति जानते हैं और हम यह भी जानते हैं कि बदलते परिदृष्य के साथ अप्रचलित राग हाषिये पर चले गये हैं। अप्रचलित रागों की श्रेणी में कर्इ राग ऐसे हैं, जिन्हें प्रचार व प्रसार की आवष्यकता है और चूंकि वे सभी रागों के नियमों के अन्तर्गत निर्मित हुए हैं अत: उनका संरक्षण भी अपरिहार्य है।
इस शोध पत्र के माध्यम से मैं अप्रचलित रागों की राग-संरक्षण में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं -

उपरोक्त सभी सुझावों के अतिरिक्त एक और तरीका कारगर सिद्ध हो सकता है और वो यह है कि रेडियों ओर दूरदर्षन पर प्रसारित होने वाले शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में अप्रचलित रागों की श्रृंखला नियमित रूप से प्रसारित की जाए।
संकेत शब्द: अप्रचलित, राग, स्वरूप, पाठयक्रम, संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत, रेडियों ओर दूरदर्षन

Dr. Roopali Pande. Kiran Vividh Kala Mahavidyalaya Bhopal

अप्रचलित रागों के प्रचार प्रसार एवं संरक्षण की आवश्यकता 

आधुनिक काल में भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रतिष्ठा, राग पर ही परिलक्षित है। इसक्षेत्र में जन-चित्त-रंजक ध्वनि विशेष की व्यवस्था है। राग प्रस्तुति के लिये उसके आवश्यक तत्व, राग लक्षण एवं समय का विशेष ध्यान रखना जरूरी है।राग का उद्भव जाति गायन से माना जाता है। कालांतर में जाति गायन के कठोर नियमों का पालन राग गायन में अनिवार्य माना गया। राग प्रस्तुतिकरण में नियमों की बद्धता राग की रंजकता के अभाव का कारण बना एवं रंजकता का अभाव राग के अप्रचलित होने का कारण बना। आज बहुत से महत्वपूर्ण राग प्रचलन मे नही है, जैसे ककुभ, लच्छासाख, मालव, चंपाकली, जंगला, झीलफ, भंखार आदि रागों का चलन ही नही रह गया। इन अप्रचलित रागों को प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण की आवश्यकता है।
अप्रचलित रागों को सर्व प्रथम घरानेदार गुरूओंसे सीखकर उनका अभ्यास करके तथा उन रागों की विभिन्न तालों मे बंदिशें बनाकर सिखाना एवं प्रकाशित करना,आकाशवाणी एवं टेलीविजन द्वारा उनका प्रस्तुतिकरण तथा नये छात्र-छात्राओं को अप्रचलित रागों को सिखाकर प्रचलन में लाया जा सकता है।
संकेत-शब्द: अप्रचलित, राग, प्रचार-प्रसार , संरक्षण, भारतीय शास्त्रीय संगीत

Solutions for Preservation: Visibility

Dr. Mrs. Tanuja Nafde. Nagpur

Audio-visual Training Modules for Preservation of Indian Musical Heritage.

India has had a wonderful history of teaching music in Guru Shishya Parampara which is currently being institutionalized through various mediums like the art classes, Educational Institutes, University and widely by Digital Media etc. Ancient Gurukul System was an effective medium to teach and learn music from experts and performers who were highly knowledgeable in both practical and theoretical study of music.
Despite increase in number of students and teaching institutions there is scarcity of the performing artists. It is apparent that the students interested in getting degrees join the institute for teaching music without knowledge and experience of performance. Music is learned by listening, understanding and practicing the Swar, Notes & Ragas in front of the gurus to understand the soul of the Swar, Notes & Ragas. Books, Cassettes, CDs or other electronic media can merely record the correctness of nature of raga, placement swar, measure & magnitude of notes, but can not teach purity notes, association with shruti and emotion associated with raga. Teachers having theoretical knowledge alone are unable to impart the practical aspects necessary for performance. The knowledge of the Indian classical Raga-s available in the books, with the gurus, performers, and experts, need to be converted in audio - visual format for retaining the sanctity of Raga-s for the coming generations.
Keywords: Raga, Audio-visual, Training, Module, Sanctity & Purity of Notes, Music Institutions

 

 


 

 

 

 

 

 

 

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(Trivedi)

Works Cited

Trivedi, Ragini. "http://www.youtube.com/watch?v=KUG48SqoyH4." 4 November 2013. Youtube.com. Video Clip. 5 January 2014.

References

Trivedi, Ragini. "http://www.youtube.com/watch?v=KUG48SqoyH4." 4 November 2013. Youtube.com. Video Clip. 5 January 2014.

Bibliography

Trivedi, Ragini. "http://www.youtube.com/watch?v=KUG48SqoyH4." 4 November 2013. Youtube.com. Video Clip. 5 January 2014.

Book

Bibliography

Chouraisya, Omprakash, Ed. Shruti Aur Smriti. Bhopal: Madhukali Prakashan, 1999.

 

Journal Article

Bibliography

Meer, Wim van der. "Improvisation Versus Reproduction, India and the world." New Sound 32 (2008): 68-78.

 

Excerpt from Dr. Asha Khare's paper

अंतरा

 

स्वर-लिपि विश्लेषण

 

 

 

प्रस्तुत पारम्परिक लोकगीत में

 

उक्त स्वर समुदायों का प्रयोग राग गारा में मिलता है। गारा राग धुन प्रधान राग है।

शास्त्रीय संगीत में प्रचलित राग गारा खमाज थाट से उत्पन्न होता है। इसका वादी स्वर षडज है। यह राग मन्द्र एवं मध्य सप्तक में गाया जाता है। गायन समय मध्य रात्रि है।

इससे यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि संगीत शास्त्रकारों ने इस लोकधुन से राग गारा की रचना की।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Raga – Conserving Musical Heritage of India
January 31st and 1st February 2014
Registration as Observer / Speaker

Name______________________________
Abstract Title_______________________
___________________________________
Institution__________________________
Designation_________________________
Student   Ph.D.    M.Phil.    PG   UG
Payment By DD  Cheque 
Amount ___________________________
Number ___________________________
Cheque / DD should be made payable to Principal,
Mata Jijabai Govt. Girls P.G. College at Indore.
Email _________________@ ______
Phone ________

Signature
Please type & print. Mail to suvarna_wad@rediffmail.com
With cc to:  raga@madhukali.org

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

NATIONAL SEMINAR KHANDWA

20 - 21 January 2014

शास्त्रीय,उपशास्त्रीय तथा सुगमसंगीत (राग-आधारित) बंदिशें

Contact : Prof Ragini Paradkar

9826089677

raginiparadkar561@gmail.com

View more details: web-site of Higher Education MP